गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

जिद अपनी तरकीब में...


जिद-संशय से घिरा
सिर्फ करना जानता है
सूरज पर शक,
चाँद का दमन....
ये शक आवारा-वाचाल लहरों को
निशब्द बनाती है
बेमतलब बात उठाती है ...
जिद न तो मेरा है,
और न ही तुम्हारा...
वो सिर्फ साजिश की
स्याह बदलियाँ हैं,
जिद अपनी तरकीब में
पारंगत हो जाए,
कोई बड़ी बात नहीं.....
जिद अपनी सहूलियत में
जीत जाए,
कोई बड़ी बात नहीं....
ये सहूलियत, ये पारंगतता
बस आत्मा को ललचाती है
बेमतलब बात उठाती है......

हमें तो जंगल ही नसीब था

हम ताबूत में बंद होकर
तुम्हारे हिस्से से
बाहर आ गए हैं...
लहुलूहान किताबों-जूतों को
उसी जंगल में
उलीच देना,
हमें तो कुछ देर
जंगल ही जीना था...
हम आँखें बंद कर
माँ के सपनों से निकल
बाहर आ गए हैं,
हमारी नाजुक शरारतों से
खून के धब्बे मिटा,
उसी ताबूत में
सुला देना
हमें तो जंगल ही नसीब था......

सोमवार, 4 अगस्त 2014

ये तुम्हारी हद है...


तप्त-तप्त मीठी रेत का मंजर
मेरा टुकड़ा-टुकड़ा दिन
लथपथ रात की बची-खुची
बेहयाई..
क्यों ठहरे हो तुम ?
एकाकार व एकाकार....
शताब्दियों से चलते
साँसों को साध
अगाध-अगाध
उस नाम-देह में
उद्दात मन की 
लहलहाती फसलें,
मेरी निरर्थकता के
हताशाबोध में
क्यों ठहरे हो तुम ?
निर्झर पलकों के दरम्यां
करीने से उठता
प्रतिशोध का संवाद
ओह.. मेरा टुकड़ा-टुकड़ा दिन.…
जिंदगी का पहाड़ा रटते-रटते
लथपथ रात की
अब तक बची-खुची
बेहयाई..
क्यों ठहरे हो तुम ?
उलझे मानकों के
समाधान की
कातर कतरन
तुमसे पहले किसने सोचा होगा
मेरी तुड़ी-मुड़ी शर्ट के बारे में,
पसीनों में डूबी
निरीह आदत के बारे में
जो पसरता जा रहा है
मचोड़ता जा रहा है
समूचे जिस्म पर
मर्यादित हंसी के साथ,
ये तुम्हारी हद है कि .…
भरपूर षडयंत्रों व साजिशों के
गहरे भंवर में
अब भी ठहरे हो तुम.…
तुमसे पहले किसने जिया होगा
मेरी थकान को
अपनी बेफिक्री में शुमार कर,
ओह... मेरा टुकड़ा-टुकड़ा दिन
ये तुम्हारी हद है.……………।

गुरुवार, 5 जून 2014

ऐसे ही...


तुम्हारे बदन के
नर्म, कोमल पलों से
कोई मुमकिन सा
एहसास चुरा लूँ तो........
तुम्हारे झुमके से
उठते आसावरी को
बहके हाथों से
छू लूँ तो........
तुम्हारे ह्रदय के
वनवास में
नहाये अंधेरों से
तुम्हें निकाल
कुछ गढ़ने की
जुर्रत कर लूँ तो.....
सोचता हूँ कि
तुम्हारे पाजेब में
एक बार सिर्फ
एक शीतल चाँद
टांक दूँ तो.....
दस-बीस मजबूत सवाल
तो गिरेंगे हीं
..................................
ठीक से तो देखो
बेकार से भटकते
उजालों को,
उन्हें बहने दो
हवाओं की मानिंद ....
आवारागर्द साँसें
किसी से पूछकर
सफर पूरा नहीं करती
.....................................
कुछ भी निरर्थक
निरुद्देश्य नहीं
हमारे जंगलों में,
मेरे अंश का ताप
मुझे जलायेगा, निखारेगा..
कच्चे पत्थरों से
जिद न करना,
पकते-पकते
कुंदन बनकर
निर्मम भीड़ में
मुझे भी समेट लेंगे
अपनी बाँहों में,
हमारे जंगलों का
यही रिवाज है..
...................................

सोमवार, 5 मई 2014

उसे तलाशना कैसा ....

धूप को.. 
आप कुछ भी कह लें
शब्द छोटे हो जाएंगे 
उसे तलाशना कैसा? 
उसे सिर पर उतार लेना है.… 
धूप तो हमारे
रग-रग में 
खिलती है
हम हरियाली बाहर ढूंढ़ते हैं
हम बारिश में भीगने 
बाहर भागते हैं
पर, धूप को तलाशना कैसा?
ख़ुदा से इश्क में
शब्द छोटे हो जाएंगे 
आप कुछ भी कह लें 
अंदर ही अन्दर 
बसंत सावन भादो 
धूप से रश्क करता है.....
वो हर पल चुपके से 
खूब तबीयत-तहज़ीब से उतरता है  
धूप ने कभी नहीं कहा, 
मुझे अपना सम्बल बन लो
अपनी बुद्धि का
क्यों नुक़सान करते हो ?
धूप ने कभी नहीं कहा,
मेरे पीछे चलो 
अपनी लज्जत को 
क्यों जाया करते हो ? 
कुछ भी कह लें हम 
बेअकली बड़ी हो जायेगी 
उसे तलाशना कैसा?
उसे सिर पर उतार लेना है.…
कान लगाकर सुनते हैं 
हम धूप को
ये कैसी बुद्धि है ?
जिसने छाया को 
भोले-भाले विश्वास सा
अपना संगी समझ लिया 
ये कैसी यात्रा है ?
ये कैसी यात्रा है ?....... 



गुरुवार, 6 मार्च 2014

चलो छोड़ो भी...

मैं ऐसा क्यों कहूं ?
तुमने आधा ही कहा था..
क्यों तुम्हें लानत भेजूं 
आधी खुली खिड़की से 
आधा चाँद ही तो 
बाहर निकला था..
क्यों तुम्हें शापित कहूं ?
देह के लावे से बाहर 
आधा आसमान ही तो 
टूट कर गिरा था..
मैं ऐसा क्यों कहूं ?

मेरी आधी हैसियत के साथ
तुम्हारे हिस्से की 
आधी भावुकता ही तो
तड़फड़ाती थी. 
आधे किनारे पर डूबकर
आधा स्वप्न ही तो पिघला था.. 
मैं ऐसा क्यों कहूं ?
क्यों तुम्हें लानत भेजूं ? 
चलो छोड़ो भी ... 
आधी-आधी नैतिकता
आधा-आधा संकल्प.
पवित्र फासलों में 
कुछ तो मुकम्मल हो जाने दो..

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

तुम कौन हो...

तुमने सत्य कहा..
दारुण्य वक़्त में
अयाचित सत्य से परे
सब खत्म करने को भी कहा ...
तुम कौन हो ?
बेपरवाह कुछ भी..
कह देते हो..
सुना देते हो...
अंतस का ताप.
तुम नहीं थे सिर्फ 
एहसास भर के लिए..
तुमने समेट लेने को कहा.
मायामय फेहरिस्त व मीन मेख
तुम कौन हो ?
उम्मीदों की धूप जैसे
बिखरते हो कहीं भी..
और उतर जाते हो..
एकदम भीतर
360 डिग्री के शक्ति संपन्न स्पेस पर..
कूटाख्यान शब्दों को
तोड़-मरोड़ कर 
अनुरक्त डुबोते हो..
धवल चैतन्य स्पर्श में 
तुम रिसते-भींगते
तप्त आस हो शायद !!!

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

...जो भोली सी उदासी है


यार जिंदगी...
मेरे-तुम्हारे भीतर
लय में उठता हुआ
धधकता हुआ जो सब्र है...
वो कोई तंज नहीं है
चेहरे का.
वो कोई पीड़ा नहीं है
सब्र के सब्र का
पर, दुःख कहाँ नहीं है....?
किसी अजनबी को
सब कुछ सौंपते हुए
नहीं सोचते हम
कि सपनों में जीते हुए
कि उलझन में गलते हुए
बहते ह्रदय की
जो भोली सी उदासी है...
वो कितनी मारक है..
अब कोई शब्द नहीं है
किताबों में,
कोई स्पर्श भी नहीं
अतीत के संवादों का
पर, दुःख कहाँ नहीं है.....?
यार जिंदगी...
मेरे-तुम्हारे भीतर
कई सौ चेहरे हैं 
सब बेमेल, अनगढ़ा
गैरवाजिब सा उगता हुआ.. 
स्वांग में डूबा 
मेरे जिस्म में भी 
कलपते खालीपन की जो आदत है...
वो मेरा दुःख नहीं है..
मैं तेरे जिद्दी हौसले की
कसम खाकर कहता हूँ कि
सब्र, उदासी, सपने
ये मेरा दुःख नहीं है..
प्यार, मोहब्बत के किस्से
मेरा दुःख नहीं है..
तुम्हें अपना सब कुछ मानकर
ह्रदय से हारकर
यह घोषणा करता हूँ कि
मेरी थकी-हारी निष्काम रातें
शून्य सपाट निर्दोष हादसे
मेरा सरल निश्छल समंदर
व अनंत अगाध आत्मीयता ही
शायद मेरा दुःख है...