सोमवार, 4 अगस्त 2014

ये तुम्हारी हद है...


तप्त-तप्त मीठी रेत का मंजर
मेरा टुकड़ा-टुकड़ा दिन
लथपथ रात की बची-खुची
बेहयाई..
क्यों ठहरे हो तुम ?
एकाकार व एकाकार....
शताब्दियों से चलते
साँसों को साध
अगाध-अगाध
उस नाम-देह में
उद्दात मन की 
लहलहाती फसलें,
मेरी निरर्थकता के
हताशाबोध में
क्यों ठहरे हो तुम ?
निर्झर पलकों के दरम्यां
करीने से उठता
प्रतिशोध का संवाद
ओह.. मेरा टुकड़ा-टुकड़ा दिन.…
जिंदगी का पहाड़ा रटते-रटते
लथपथ रात की
अब तक बची-खुची
बेहयाई..
क्यों ठहरे हो तुम ?
उलझे मानकों के
समाधान की
कातर कतरन
तुमसे पहले किसने सोचा होगा
मेरी तुड़ी-मुड़ी शर्ट के बारे में,
पसीनों में डूबी
निरीह आदत के बारे में
जो पसरता जा रहा है
मचोड़ता जा रहा है
समूचे जिस्म पर
मर्यादित हंसी के साथ,
ये तुम्हारी हद है कि .…
भरपूर षडयंत्रों व साजिशों के
गहरे भंवर में
अब भी ठहरे हो तुम.…
तुमसे पहले किसने जिया होगा
मेरी थकान को
अपनी बेफिक्री में शुमार कर,
ओह... मेरा टुकड़ा-टुकड़ा दिन
ये तुम्हारी हद है.……………।