गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

जिद अपनी तरकीब में...


जिद-संशय से घिरा
सिर्फ करना जानता है
सूरज पर शक,
चाँद का दमन....
ये शक आवारा-वाचाल लहरों को
निशब्द बनाती है
बेमतलब बात उठाती है ...
जिद न तो मेरा है,
और न ही तुम्हारा...
वो सिर्फ साजिश की
स्याह बदलियाँ हैं,
जिद अपनी तरकीब में
पारंगत हो जाए,
कोई बड़ी बात नहीं.....
जिद अपनी सहूलियत में
जीत जाए,
कोई बड़ी बात नहीं....
ये सहूलियत, ये पारंगतता
बस आत्मा को ललचाती है
बेमतलब बात उठाती है......

हमें तो जंगल ही नसीब था

हम ताबूत में बंद होकर
तुम्हारे हिस्से से
बाहर आ गए हैं...
लहुलूहान किताबों-जूतों को
उसी जंगल में
उलीच देना,
हमें तो कुछ देर
जंगल ही जीना था...
हम आँखें बंद कर
माँ के सपनों से निकल
बाहर आ गए हैं,
हमारी नाजुक शरारतों से
खून के धब्बे मिटा,
उसी ताबूत में
सुला देना
हमें तो जंगल ही नसीब था......