गुरुवार, 5 जून 2014

ऐसे ही...


तुम्हारे बदन के
नर्म, कोमल पलों से
कोई मुमकिन सा
एहसास चुरा लूँ तो........
तुम्हारे झुमके से
उठते आसावरी को
बहके हाथों से
छू लूँ तो........
तुम्हारे ह्रदय के
वनवास में
नहाये अंधेरों से
तुम्हें निकाल
कुछ गढ़ने की
जुर्रत कर लूँ तो.....
सोचता हूँ कि
तुम्हारे पाजेब में
एक बार सिर्फ
एक शीतल चाँद
टांक दूँ तो.....
दस-बीस मजबूत सवाल
तो गिरेंगे हीं
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ठीक से तो देखो
बेकार से भटकते
उजालों को,
उन्हें बहने दो
हवाओं की मानिंद ....
आवारागर्द साँसें
किसी से पूछकर
सफर पूरा नहीं करती
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कुछ भी निरर्थक
निरुद्देश्य नहीं
हमारे जंगलों में,
मेरे अंश का ताप
मुझे जलायेगा, निखारेगा..
कच्चे पत्थरों से
जिद न करना,
पकते-पकते
कुंदन बनकर
निर्मम भीड़ में
मुझे भी समेट लेंगे
अपनी बाँहों में,
हमारे जंगलों का
यही रिवाज है..
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