बेकरार रंग की तबीयत संग
सादा आकाश सा समतल मन
दो निर्दोष प्राण का
भटका, भूला तन
भला कहां तलाशता है
आत्मिक जतन ?
एक मेरा कबूलनामा,
दूसरी तुम्हारी गवाही..
मौन संधान का जिरह शेष है
हाथ जोड़े उस सजायाफ्ता का
भटका, भूला तन
भला कहां तलाशता है
भूख, नींद का हाहाकारी स्वर ?
तुम शीतल चांद का आंगन
हम दूर देश के पाती
जो वक़्त रात ने रख दिया
समेट कर, कचोट कर
एक मेरा कबूलनामा,
दूसरी तुम्हारी गवाही
तुम मीठे बसंत की तिलस्म सी
मैं पतझड़ में रहा आत्मरत
जो थक गए, वो लौट गए
बस, इतना रहा सारांश....