अग्निगंधा शब्दों का
आग पीता रक्तिम ख्वाब
ऊबना..और डूबना..
बौद्धिक बहस की
व्यर्थ तलब...
बेमतलब.. और बेसबब
तुम...
कुछ भी कह दो
कुछ भी रख दो.......
तेरे किस्से का मुंतजिर होना ..
दम उखड़ी साँसों का पुर्जा होना
रच-रच के रचना,
कस-कस के कसना
तुम...
कुछ भी कह दो
कुछ भी रख दो.......
हर किस्से में
हर जीवन में
बेफिक्री है.. नादानी है,
थके-पिटे इल्जामों की
उलझी कतरन में
धूप..हवा व पानी है..
तुम...
कुछ भी कह दो...
कुछ भी रख दो...
थोड़ी सी मद्धिम उलझन है
मेरी आदत से
क्या कोई अनबन है ?
मेरे चेहरे पर क्या मातम है ?
तुम...
कुछ भी कह दो...
कुछ भी रख दो...
आप सा तो नहीं दिखता,
बतकूचन में नहीं बहता
पर क्यों ऐसे में
मैं चुप रहूँ ?
क्यों न दबकर ही
दो शब्द कहूं ?
मेरी कोशिशों का
दस्तरस
हाँ.. मेरी कोशिशों का
दस्तरस
हरदम.. हरपल..उत्फुल्ल है
नशा नित्य निश्छल है
बस कर्म का एक संबल है..
पर तुम ...
कुछ भी कह दो...
कुछ भी रख दो...
आग पीता रक्तिम ख्वाब
ऊबना..और डूबना..
बौद्धिक बहस की
व्यर्थ तलब...
बेमतलब.. और बेसबब
तुम...
कुछ भी कह दो
कुछ भी रख दो.......
तेरे किस्से का मुंतजिर होना ..
दम उखड़ी साँसों का पुर्जा होना
रच-रच के रचना,
कस-कस के कसना
तुम...
कुछ भी कह दो
कुछ भी रख दो.......
हर किस्से में
हर जीवन में
बेफिक्री है.. नादानी है,
थके-पिटे इल्जामों की
उलझी कतरन में
धूप..हवा व पानी है..
तुम...
कुछ भी कह दो...
कुछ भी रख दो...
थोड़ी सी मद्धिम उलझन है
मेरी आदत से
क्या कोई अनबन है ?
मेरे चेहरे पर क्या मातम है ?
तुम...
कुछ भी कह दो...
कुछ भी रख दो...
आप सा तो नहीं दिखता,
बतकूचन में नहीं बहता
पर क्यों ऐसे में
मैं चुप रहूँ ?
क्यों न दबकर ही
दो शब्द कहूं ?
मेरी कोशिशों का
दस्तरस
हाँ.. मेरी कोशिशों का
दस्तरस
हरदम.. हरपल..उत्फुल्ल है
नशा नित्य निश्छल है
बस कर्म का एक संबल है..
पर तुम ...
कुछ भी कह दो...
कुछ भी रख दो...
जीवन जीने के तमाम विषयों के विवादों के बीच ठंडे दिल व दिमाग से रहने की तरकीब बताती कविता। सांसारिक खोखलाहट से मतिभ्रमित होने के बजाय हरदम, हरपल की यह उत्फुल्लता, यह नशा वाकई नित्य-प्रतिदिन निश्छल है। कर्म का एक ऐसा संबल सबके लिए जरूरी है......
जवाब देंहटाएंये थोड़ी सी मद्धिम उलझन नित्य निश्छल की गयी कोशिशों से सुलझती रहे तो यक़ीनन सरूर अपने शबाव पर रहेगा..
जवाब देंहटाएंहाँ.. मेरी कोशिशों का
जवाब देंहटाएंदस्तरस
हरदम.. हरपल..उत्फुल्ल है
नशा नित्य निश्छल है
बस कर्म का एक संबल है..
पर तुम ...
कुछ भी कह दो...
कुछ भी रख दो...
वाह भावों का अद्भुत समर्पण ....!!सुंदरता से मन की बात कही ...!!
बेमतलब बेसबब
जवाब देंहटाएंतुम
कुछ भी कह दो
कुछ भी रख दो ......बहुत सरल भावों से मन की सुंदर अभिव्यक्ति ....!!
इसी तरह किसी के कुछ कहने से बिना उद्वेलित हुए कर्म-तल्लीनता ही तो सुखद जीवन का आधार है.
जवाब देंहटाएंकुछ भी कह दो
कुछ भी रख दो.......
हर किस्से में
हर जीवन में
बेफिक्री है.. नादानी है,
थके-पिटे इल्जामों की
उलझी कतरन में
धूप..हवा व पानी है..
तुम...
कुछ भी कह दो...
कुछ भी रख दो...
यही शाश्वत सत्य है. अति सुन्दर कृति.
कर्म का संबल ही जीवन को तठस्त्ता देता है ... जीवन की गति फिर समयानुसार हो जाती है ...
जवाब देंहटाएंभैया रचना में तेरी बहुत रवानी है ,
जवाब देंहटाएंज़िंदगानी है -
रच-रच के रचना,
कस-कस के कसना
तुम...
कुछ भी कह दो
कुछ भी रख दो.......
हर किस्से में
हर जीवन में
बेफिक्री है.. नादानी है,
थके-पिटे इल्जामों की
उलझी कतरन में
धूप..हवा व पानी है..
शुक्रिया राहुल भाई भगवान् बचाये शराब से शराबियों से।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
बतकूचन और दस्तरस शब्दों का अभिनव प्रयोग रूपक की सांद्रता को बढ़ाता है। राग और विरह ,विराग से संसिक्त रचना।
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