गुरुवार, 25 जुलाई 2013

बहुत सारी प्यास रखकर...


कभी पूछा है ?
मन बंजर समंदर से
रेजा-रेजा चुप्पी के बारे में..
लड़ते लहरों पर
बिना जिन्दगी की मोहलत के
मंत्र मुग्ध योगी की मानिंद
धुनी रमाते हुए...
बस यूँ ही 
अपने सर्वोत्तम को
दाँव पर लगाते हुए..
कभी पूछा है ?
अर्धचेतन साँसों में
घुटते धुएं से...
सहज सन्धानों की
जटिल भूमिकाओं के बारे में.. 
बस यूँ ही
तड़पन की महक
बिखेरते हुए..
कभी देखा है?
किश्तों में नदी को
मरते हुए.. 
पागल पानियों को
बस यूँ ही
अपने आह्लाद में
डूबते हुए..
कितना कुछ अजीब है ना ?
बहुत सारी प्यास रखकर
खामोशी का समंदर जीना...
निपट आर्तनाद सुनकर
प्रेम का छंद गढ़ना...
भरे-पूरे जीवन का
सम्मोहन देख
नदियों का हिस्सा बन जाना...
सच में दोस्तों
कितना कुछ अजीब है ना ?

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

सफ़ेद उम्मीदों के बीच...


सफ़ेद उम्मीदों का
शब्द लिए
बच्चे बीन रहे हैं
टेढ़े-मेढ़े सपने..
तोड़- मरोड़ कर
पढ़ी जा रही है कहानियाँ
उलटी धाराओं में
पानी पीटकर
नदी बो रही है
स्वर्णिम सूर्य का चेहरा .....
एक मुद्दत के बाद
रात भर
ठंडी दूब टपक रही है
जैसे ठंडे जिस्मों से
कोपलें रिस रही हो ....
मुझे दिख रहा है
शब्दों, कहानियों का
परास्त आदमी
तिलस्म के ढेर में
सफ़ेद उम्मीदों के
बीच अलोप हुआ जा रहा है..... 

रविवार, 14 जुलाई 2013

इस तरह मिल...

यूं ही शब्दों का उधार न करो
थोड़ा और विस्तार करो
एक बार फिर विचार करो
शायद मैं उतना गलत नहीं हूँ
जितने हमारे रिश्तों के मापदंड
शायद गलत है
हमारे आसमान के अन्दर
बेगानी हवाओं के दखल
हमारी राह में उलझते
और राहों के दखल
मनचाही चाहतों का दखल
जो कि थोड़ा सा पसीजता है
बहुत ज्यादा तड़पाता है

उन परछाइओं का दखल
गलत मैं नहीं
रिश्तों की परिभाषा गलत है
हमारी अभिलाषा गलत है
दखल का दखल गलत है ........
                                                                आसी की कलम से