शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

ठहर जाओ फिर वहीं...

...तो इस पार कुछ भी नहीं

भाव, कोलाहल, क्रंदन नहीं

चन्द बूंदों की लिप्सा, नाहक जिजीविषा

ठहरी उम्मीदों की निर्वात पुकार

...तो बेशर्त मान जाओ

अब ख्वाब दूसरा नहीं

छटपटाते मोह से अलग-थलग

ठहर जाओ फिर वहीं

निर्मम अज्ञात ध्रुव पर,

कुछ भी नहीं पनपा

पाषाण समय के पास,

हम-तुम नासमझ जख्म में भींगे...

ठहर जाओ फिर वहीं,

प्रेमिल स्वर में यहीं कहीं...

टूटा-बिखरा जस का तस

वो पल, आह ! कैसा गुमां ?

समेट लो अपनी निजता

अक्षुण्ण हृदय में,

कसमसाते स्वर से थाम लो

बचा-खुचा एकान्त.....






शनिवार, 6 मई 2023

हम दूर देश के पाती..

बेकरार रंग की तबीयत संग

सादा आकाश सा समतल मन

दो निर्दोष प्राण का 

भटका, भूला तन

भला कहां तलाशता है

आत्मिक जतन ?

एक मेरा कबूलनामा,

दूसरी तुम्हारी गवाही..

मौन संधान का जिरह शेष है

हाथ जोड़े उस सजायाफ्ता का 

भटका, भूला तन

भला कहां तलाशता है

भूख, नींद का हाहाकारी स्वर ?

तुम शीतल चांद का आंगन 

हम दूर देश के पाती

जो वक़्त रात ने रख दिया

समेट कर, कचोट कर

एक मेरा कबूलनामा,

दूसरी तुम्हारी गवाही

तुम मीठे बसंत की तिलस्म सी

मैं पतझड़ में रहा आत्मरत

जो थक गए, वो लौट गए

बस, इतना रहा सारांश....

शनिवार, 23 जुलाई 2022

बेहद असामान्य सा..

शायद कोई एक
उठ खड़ा होगा 
बेहद असामान्य सा,
तरंगदैर्ध्य की लय साधते
समीप होकर भी 
अदृश्य महक बटोरते
कांपते हाथों को सौंपते
धड़कते हृदय का दस्तावेज
बेहद असामान्य सा...
यही कहना दुरुस्त होगा
समीचीन होगा, तटस्थ होगा
प्रेम में यही होगा
पेड़ों की मदहोश आदतें
उठ खड़ी होगी आदतन
आंखें डूबने को होगी
शब्द दर शब्द किस्सागोई में...
जब कोई एक, 
यूं ही सवाल पूछेगा
मौसम की बदमिजाजी पर
अल्हड़ हवा की मानिंद
जो कुछ न हुआ होगा
एक संग होकर
कितना कुछ होगा 
बेहद असामान्य सा ??




शनिवार, 4 जून 2022

कहां पनाह, कौन सा दर ?

समय के सिलवट में उतरना

जैसे उतरना हो 

सत्यजनित आग का,

नादां जिस्म की कोपलों से रिसना

जैसे रिसता है प्रायश्चित

सब टूट कर बेजार

ब्रह्मलीन हुए भी तो...

कहां पनाह, कौन सा दर ?

ये यकीनन दिलचस्प होगा...

शायद होगा ये भी...

..कि कुचली सड़कें वापस नही आएगी

पानी का भी वही अंदाज ओ अंजाम...

पाखी भी चूर हो सिमट रहे

थकान में लिपट रहे...

कहां पनाह, कौन सा दर ?

शायद ही कोई आना चाहे

बंजर, वितान शब्दों का ख्वाब ओढ़े

ये वक़्त का पंचनामा,

उम्मीदों की फेहरिस्त

नीम शहद की खुशबू सी...

कटोरे में बासी भात को निहारती भूख

ये यकीनन दिलचस्प होगा

ओह, ये तड़प, वो आग

सीने से चिपकाए माँ

जेहन में उबलती बेचारगी

बेगानगी को कैसे लिखें, कहाँ रखें ?






शनिवार, 11 सितंबर 2021

रेत के तजुर्बे...

साजिशन मुकम्मल होने का

स्वांग रचते,

नित नये तिलिस्म में

जन्म लेते, जीते

रेत के तजुर्बे..

मेरे ही शब्द के 

एकाकी सारथी

सुनो, देखो, समझो

कि धूप ही 

नरदेह का श्रृंगार है.......

अनगिन स्नेहिल धारा में 

बहके-आह्लादित

टूटते मन का गीला परिवेश

फिर से बिखरने का

अबोध अनहद स्वर

सुनो, देखो, समझो 

कि सिर्फ प्रेम ही

खुदा की आदत है....

आत्मा का झूमना, उमड़ना

सच-सच सहेजना

गाहे-गाहे रिसना

महसूसना...

आधी-आधी नैतिकता का

आधा-आधा संकल्प,

कुछ पवित्र फासलों में

मेरे ही शब्द के 

एकाकी सारथी

सुनो, देखो, समझो

कि निष्पाप खुशबू को

बचाए रखना ही 

समय का मुकम्मल संकल्प है....








बुधवार, 17 जुलाई 2019

तुम्हारी बज्म से बाहर भी एक दुनिया है.
मेरे हुजूर, बड़ा जुर्म है ये बेखबरी.....

गुरुवार, 2 नवंबर 2017

कभी नासमझ रात तलाशे मन...

नितांत नरदेह की दुश्वारियों में
ढेर सारा कल्पित मन
अलौकिक, अदम्य व असहज
बेतरतीब हमसफ़र है मन
एक-दूसरे पर सवार बंजर, बेअसर
ढेर सारा अमानुष मन
सवाल तो नहीं है मन
आह... ऐसा भी मन
लिपटा है एकांत संग मन..
बेमौत मरता भीतर-भीतर 
मोह-लिप्सा में पिसता मन
रंज कोलाहल और रंजोगम
मन का पहाड़ तरासता मन
कुचला मन, भींगा मन
रोज-रोज का दमन
कितना अहसान है
मेरे मन पे तेरा मन
तुम क्यों हो पंखुरी जैसे मन?
खिलना, महकना मंद-मंद
सवाल तो नहीं है मन
निर्मम समय की क्रूर कथा मन
निरुपाय सत्य की आहत व्यथा मन
मन का ऐसा मंजर,
मन तो है ऐसा बेमन
निर्लज्ज, निरुदेश्य किश्त दर किश्त
आह... ऐसा भी मन.....
मन माफिक फरेबी मजा है मन
तेरी इबादत की एक सजा है मन...
कभी नासमझ रात तलाशे मन
कभी जबरन याद तलाशे मन
तुम क्यों हो पंखुरी जैसे मन
आह... ऐसा भी मन
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क्या कहोगे ?

कुछ सजा और मिला दो
चुपके से लानत फैला दो
काट-काट के राख बिछा दो
बच्चों को यूँ शब्द बना दो

क्या कहोगे, क्या करोगे ?
मातम की क्या मात रचोगे ?
सिर्फ सन्नाटे की बात कहोगे ?
किलकारियों पर बिसात रचोगे ?
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