गुरुवार, 2 नवंबर 2017

कभी नासमझ रात तलाशे मन...

नितांत नरदेह की दुश्वारियों में
ढेर सारा कल्पित मन
अलौकिक, अदम्य व असहज
बेतरतीब हमसफ़र है मन
एक-दूसरे पर सवार बंजर, बेअसर
ढेर सारा अमानुष मन
सवाल तो नहीं है मन
आह... ऐसा भी मन
लिपटा है एकांत संग मन..
बेमौत मरता भीतर-भीतर 
मोह-लिप्सा में पिसता मन
रंज कोलाहल और रंजोगम
मन का पहाड़ तरासता मन
कुचला मन, भींगा मन
रोज-रोज का दमन
कितना अहसान है
मेरे मन पे तेरा मन
तुम क्यों हो पंखुरी जैसे मन?
खिलना, महकना मंद-मंद
सवाल तो नहीं है मन
निर्मम समय की क्रूर कथा मन
निरुपाय सत्य की आहत व्यथा मन
मन का ऐसा मंजर,
मन तो है ऐसा बेमन
निर्लज्ज, निरुदेश्य किश्त दर किश्त
आह... ऐसा भी मन.....
मन माफिक फरेबी मजा है मन
तेरी इबादत की एक सजा है मन...
कभी नासमझ रात तलाशे मन
कभी जबरन याद तलाशे मन
तुम क्यों हो पंखुरी जैसे मन
आह... ऐसा भी मन
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क्या कहोगे ?

कुछ सजा और मिला दो
चुपके से लानत फैला दो
काट-काट के राख बिछा दो
बच्चों को यूँ शब्द बना दो

क्या कहोगे, क्या करोगे ?
मातम की क्या मात रचोगे ?
सिर्फ सन्नाटे की बात कहोगे ?
किलकारियों पर बिसात रचोगे ?
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मंगलवार, 21 मार्च 2017

कोई हासिल सा हक़...


 तुम कुछ शब्दों में बांधते हो
प्रेम की समीक्षाओं को,
नेह के पवित्र सूरज को
वैराग्य के असीमित ताप को.
लालायित सपनों के इस जहाँ में,
तुम कभी तो हवाओं संग दिखोगे.
नासमझ-नाउम्मीद सी
तुम कभी तो प्रार्थना में मिलोगे,
कभी तो ईश्वर की तरह बरसोगे.
कोई हासिल सा हक़ है तुम पर..
जैसे-तैसे खड़ी लकीरों में,
रोज-रोज मेरी एक आदत मरती है,
बरबस निरंतर अनबूझ सवाल गढ़ती है.
रास्ते भी हैं कुछ प्रतीक्षाओं जैसे,
हौसले भी हैं कुछ हिमालय जैसे
तुम कभी तो अनगढ़ सपनों में भटकोगे,
एक पड़ाव भर शब्द भारी है तुम पर..
तुम कभी तो सुनोगे वेदना की दखल को,
तुम कभी तो जी उठोगे हंसी के कोमल चित्त में
रोज-रोज मेरी एक आदत मरती है,
बरबस निरंतर अनबूझ सवाल गढ़ती है.

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नाजुक लटों में लिपटा
तंग जायकों में सिमटा
उम्मुक्त कविताओं का मोहपाश
बिखरे बेसुध घर में
निर्लिप्त पानी रिझाती
पापी मन की प्यास
...और ये दिन जा रहे. 
शांत-अधीर खेतों से
उठकर उगने लगी राख
थकी-बुझी बेदिल दोपहर में
किश्त दर किश्त किस्सों से
बर्तन की सिलवटों में लिपटा
शांत एकाकी आँगन 
 ...और ये दिन जा रहे.

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

ये कौन सा ववंडर है ?

दो रूहों के दरम्यान
एक ही पैमाने का होना
कितना दुष्कर है ?
परखना, महसूस करना
तुम्हारी धड़कन को, 
और ये जानना भी  कि..
हर जिद्दी सवाल के मोड़ पर
जिस्म के जंजाल जी उठते हैं
व्यर्थ-अनर्थ योग मिल उठते हैं.. 

ये कौन सा ववंडर है ?

चुपचाप अनगढ़ फैसला,
सबको उल्टा लटकाता है
मारकर तड़पाता है...
कितना दुष्कर है ?
समझना, समझाना
तुम्हारी पर्वत सी समझ को..
और ये मानना भी कि,
बसंत में ह्रदय से आह जन्म लेते हैं
चिथड़ों में लिपटे साये सिमट लेते हैं.

ये कौन सा ववंडर है ?

सरल सुलगता धुंआ
सबको बेहिसाब जलाता है
अनंत आग लहराता है
कितना दुष्कर है ?
क्षण दर क्षण जीना-मरना,
तुम्हारी बहकी हुई आगोश में...
और ये मानना भी कि..
जब निर्लिप्त मुस्कुराती हो
गैर इरादतन हौसला हो जाती हो.

ये कौन सा ववंडर है ?

यूँ ही जीता हुआ मन
कच्ची सहर तक जगमगाता है
नाहक़ कोशिशों में कसमसाता है
कितना दुष्कर है ?
पंखुरियों सा बरसना-बरसाना
नेमतों की राख को,
और ये मानना भी कि..
तुम जब समंदर सा हो जाती हो
मीठी खुशबू में उतर आती हो.

ये कौन सा ववंडर है ?

हवा की मनचाही दखल
दूर तक पत्थरों को उडाती है
सुकून के आँचल लहराती है
कितना दुष्कर है ?
समेटना-सहेजहना,
सजदे को सब्र से..
और ये मानना भी कि..
प्रेम आत्मा का विस्तार है
तिनका-तिनका रूह का आधार है.

                                                                                    











शनिवार, 21 जनवरी 2017

ह्रदय को हर बार कहा......

कितनी बेजुबान यादें
बातें करती मन की रातें
शिकवों से भी खूब अघाते
थक-मर कर एक स्वप्न गाते
पर तुम,
कहाँ छूट गए राही ?
याचनाओं का दर्द तय है
चाहत पर चुप्पी तय है
कुछ आंसू गिरना तय है
बेमन का मरना तय है
पर तुम,
कहाँ छूट गए राही ?
ह्रदय को हर बार कहा
थमने को थम जा ज़रा
न भाग के यूँ भाग जरा
चुप्पी को यूँ देख ज़रा
पर तुम,
कहाँ छूट गए राही ?
यूँ कहने से भी क्या होगा
जिद का भी एक फलसफा होगा
रच-रच कर भी क्या होगा
अब फासलों से ही फैसला होगा
पर तुम,
छूट गए राही ........................