मंगलवार, 21 मार्च 2017

कोई हासिल सा हक़...


 तुम कुछ शब्दों में बांधते हो
प्रेम की समीक्षाओं को,
नेह के पवित्र सूरज को
वैराग्य के असीमित ताप को.
लालायित सपनों के इस जहाँ में,
तुम कभी तो हवाओं संग दिखोगे.
नासमझ-नाउम्मीद सी
तुम कभी तो प्रार्थना में मिलोगे,
कभी तो ईश्वर की तरह बरसोगे.
कोई हासिल सा हक़ है तुम पर..
जैसे-तैसे खड़ी लकीरों में,
रोज-रोज मेरी एक आदत मरती है,
बरबस निरंतर अनबूझ सवाल गढ़ती है.
रास्ते भी हैं कुछ प्रतीक्षाओं जैसे,
हौसले भी हैं कुछ हिमालय जैसे
तुम कभी तो अनगढ़ सपनों में भटकोगे,
एक पड़ाव भर शब्द भारी है तुम पर..
तुम कभी तो सुनोगे वेदना की दखल को,
तुम कभी तो जी उठोगे हंसी के कोमल चित्त में
रोज-रोज मेरी एक आदत मरती है,
बरबस निरंतर अनबूझ सवाल गढ़ती है.

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नाजुक लटों में लिपटा
तंग जायकों में सिमटा
उम्मुक्त कविताओं का मोहपाश
बिखरे बेसुध घर में
निर्लिप्त पानी रिझाती
पापी मन की प्यास
...और ये दिन जा रहे. 
शांत-अधीर खेतों से
उठकर उगने लगी राख
थकी-बुझी बेदिल दोपहर में
किश्त दर किश्त किस्सों से
बर्तन की सिलवटों में लिपटा
शांत एकाकी आँगन 
 ...और ये दिन जा रहे.

6 टिप्‍पणियां:

  1. आतुर हृदय की कोमल अभिलाषा ! प्रतीक्षा जब स्वभाव बन जाये और हौसले हिमालय से हों तो उसको बरसना ही पड़ता है..

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  2. अबट प्रभावी दोनों रचनाएँ ..।
    आदतें मरती नहीं समय के साथ रूप बदलती हैं बस ... रोज़ सामने आती हैं किसी न किसी रूप में ...ज़रूर जागती मिलेंगीं ...
    दूसरी रचना भी लाजवाब है ... एकाकी आँगन कहाँ रहता है जब ऊर्जा बाक़ी रहे ...

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  3. गज़ब कर दिया……बहुत ही सुन्दर अन्दाज़ है शब्दों को पकड्ने का

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  4. Bhut sundar
    kya aap apni story ko book ke roop me publish krna chahte hain
    Publish a Books In India

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  5. कुछ खोजता सा... कुछ पाता सा मन ... अप्रतिम रचनाएँ गढ़ देता है। ...!!

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  6. बाँधने से भी बँधता कहाँ है वो ... कुछ .

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