...तो इस पार कुछ भी नहीं
भाव, कोलाहल, क्रंदन नहीं
चन्द बूंदों की लिप्सा, नाहक जिजीविषा
ठहरी उम्मीदों की निर्वात पुकार
...तो बेशर्त मान जाओ
अब ख्वाब दूसरा नहीं
छटपटाते मोह से अलग-थलग
ठहर जाओ फिर वहीं
निर्मम अज्ञात ध्रुव पर,
कुछ भी नहीं पनपा
पाषाण समय के पास,
हम-तुम नासमझ जख्म में भींगे...
ठहर जाओ फिर वहीं,
प्रेमिल स्वर में यहीं कहीं...
टूटा-बिखरा जस का तस
वो पल, आह ! कैसा गुमां ?
समेट लो अपनी निजता
अक्षुण्ण हृदय में,
कसमसाते स्वर से थाम लो
बचा-खुचा एकान्त.....